अनुभूति में शिवबहादुर सिंह
भदौरिया की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
एक सवाल कि जीवन क्या है
कहा कि सबकी पीड़ा गाओ
कुहासे की शिलाएँ
जिंदगी कठिन तेवर तेरे
दुर्दिन महराज
पत्थर समय
पाँवों में वृन्दावन बाँधे
बैठ लें कुछ देर आओ
यही सिलसिला है
वटवृक्ष पारदर्शी
गीतों में-
इंद्रधनुष यादों ने ताने
जीकर देख लिया
टेढ़ी चाल जमाने की
नदी का बहना मुझमें हो
पुरवा जो डोल गई
मुक्तक में-
सब कुछ वैसे ही |
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नदी का बहना
मुझमें हो
मेरी
कोशिश है कि
नदी का बहना मुझमें हो
तट से सटे कछार घने हों
जगह -जगह पर घाट बनें हों
टीलों पर मंदिर हों जिनमें
स्वर के विविध वितान तनें हों
मीड़
मूर्छनाओं का
उठाना -गिरना मुझमें हो
जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाये खाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटें
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी
मच्छ -मगर
घड़ियाल
सभी का रहना मुझमें हो
मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काट कर नहरें
ले जाएँ पानी ऊसर में
जहाँ कहीं हो
बंजरपन का
मरना मुझमें हो
२५ अप्रैल २०११ |