पूछता है
द्वार
पूछता है द्वार चौखट से --
कहो, कितना खुलूँ मैं!
सोच ही में लक्ष्य से
मिलकर बजाता जोर ताली।
या, अघाया चित्त लोंदे सा,
पड़ा करता जुगाली।
मान ही को छटपटाता,
सोचता कितना तुलूँ मैं!
घन पटे दिन
चीखते हैं- रे, पड़ा रह तन सिकोड़े
काम ऐसा क्या किया, पातक!
कि व्रत में रस सपोड़े!
किन्तु, ले शक्कर हृदय में
कुछ बता कितना घुलूँ मैं!
शब्द के व्यापार में हैं रत
किये का स्वर अहं है।
इस गगन में राह भूला वो
अटल ध्रुव जो स्वयं है!
अब मुझे, संसार, कह
आखिर कहाँ कितना धुलूँ मैं!
१२ मई २०१४