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जो कर सके तो कर अभी
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हौली है- फागुन फागुन धूप
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विजय पर्व- शक्ति पाँच शब्दरूप

 

जो कर सको तो कर अभी

शिथिल मनस पे वार कर,
जो कर सके तो कर अभी
प्रहार बार-बार कर
जो कर सके तो कर अभी!

अजस्र श्रोत-बिन्दु था मनस कभी बहार का
यही हृदय उदाहरण व पुंज था दुलार का
प्रवाह किंतु रुद्ध अब, विदीर्ण-त्रस्त स्वर लगें
सनातनी विचार के न तथ्य ही प्रखर लगें

मग़र किसी को दोष क्यों
हमीं युगों से सो रहे
असह्य फिर प्रहार कर,
जो कर सके तो कर अभी

कभी यही समाज था प्रबल, कि लोग शांत थे
विचारवान थे सभी, सुसभ्य गाँव-प्रांत थे
मग़र चली वो आँधियाँ सचेत तक बहक गये
रवाँ जहाँ सुतंत्र था, विचार तक दहक गये

समाज क्रुद्ध, राज भ्रष्ट
देख लोग पस्त हैं
न पार्श्व से पुकार कर
जो कर सके तो कर अभी

सुरम्य घाटियों से देख जा रही प्रभा किधर
जघन्य पाप के विरुद्ध क्या करे दुआ असर
विकल पड़ा है व्यक्ति यों, कि त्राण है, न राह है
विचारशील के लिये न वृत्ति का प्रवाह है

झिंझोर दें, हुँकार कर
तमस प्रभाव दे मिटा
हुँकार जोरदार कर
जो कर सके तो कर अभी

हृदय सन्देह लबलबा तभी लचर लिहाज़ हैं
न दीखते उपाय ही, अहं सने रिवाज़ हैं
विदग्ध राष्ट्र-भावना तभी प्रसूत भाव से
अमर्त्य वीर थे सदा प्रसिद्ध हम स्वभाव से

विद्रोह-ज्वाल से भरे
विचार रौद्र झोंक दे
प्रघात बेशुमार कर
जो कर सके तो कर अभी

२७ अप्रैल २०१५

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