विजयदशमी की कविताओं का संकलन
 

 

शक्ति : पाँच शब्द रूप

एक.

देखी है उसकी आँखें ?
--- निस्पृह
निर्विकार
निरभ्र / और
निश्चिंत !
हर तरह के अतिरेक को नकारतीं
इन्हीं ने तो जताया है समस्त ब्रह्माण्ड को --
हिंसा-चक्र साध्य नहीं
संवाद और निराकरण का एक माध्यम भी होता है !

दो.

किसी सक्षम का विस्तार अकस्मात नहीं होता
विस्तार वस्तुतः कढ़ता है
स्वीकृत होते ही सबल हो जाता है
फिर, अनवरत परीक्षित होता रहता है सर्वग्राही धैर्य
सदा-सदा-सदा
पुरातन काल से !

तीन.

अधमुँदी आँखों की विचल कोर को नम न होने देना
उसका प्रवाह भले न दीखे
वज़ूद बहा ले जाता है

चार.

उसने छुआ
कि,
अनुप्राणित हो उसका शिवत्व.. .
जगे अमरत्व का पर्याय अक्सर आसुरी क्यों होने लगता है
एक बार फिर से छुए जाने के लिए ?

पाँच.

थैले उठाये सब्जी लाती कल्याणी
बच्चों संग झँखती-झींकती कात्यायनी
पानी के लिए / बम्बे संग / चीखती कालरात्रि
सुबह से शाम तक स्वयं को
बूझती-ढूँढती-निपटती कुष्माण्डा
देर रात तहस-नहस होती आहत-गर्व सिद्धिरात्रि
अपने अपरूपों का भ्रूण-वध सहती कालिका
शक्ति, तुझे मैंने कितना कुछ जाना है !! 

- सौरभ पाण्डेय


 

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