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सामने द्वार के तुम
रंगोली भरो
मैं उजाले करूँ दीप ओड़े हुए..
क्या हुआ
शाम से आज बिजली नहीं
दोपहर से दिखे टैप बिसुखा इधर
सूख बरतन रहे हैं न माँजे हुए
जान खाती दिवाली अलग से, मगर--
पर्व तो पर्व है आज कुछ हो अलग
आँज लें नैन सपने
सिकोड़े हुए... .
क्या हुआ
हम दुकानों के काबिल नहीं
भींच कर मुट्ठियाँ क्या मिलेगा मगर
मैं कहाँ कह रहा हम बहकने लगें
पर, कभी तो जियें ज़िन्दग़ी है अगर.. !
नेह रौशन करे ’मावसी साँझ को,
हम भरोसों भरें
भाव जोड़े हुए.. .
-सौरभ पाण्डेय
२८ अक्तूबर २०१३ |