द्वापर प्रसंग
बहता
काला रक्त है
हरिण-मुखी थिर पाँव
यह द्वापर की
साँझ है
ढलती जाती छाँव।
लपटें उठतीं
गगन तक
कैसा यह मृग-दाव
इस अंधे युग के नहीं
संभव मिटाने घाव।
दुर्लभ अपनी बंधुता
दुर्लभ यह प्रासाद
कक्ष-कक्ष में
लाख से
हों संबंध अगाध।
प्रजातंत्र की
द्रौपदी
राजनीति का द्यूत
पौरुष के
अपमान की
गाथा कहते सूत।
चंपानगरी-सा छुटा
शिशु-वसु
कब किस तीर
मान-दग्ध
कुरु-भूमि में
हम वैकर्तन वीर।
अभिनंदित
क्यों हो नहीं
भीष्म-जयी गांडीव
रक्षित
नंदी-घोष में
ढाल बना है क्लीव।
रह कोलाहल-घर्षिता
सांध्य काकली
मौन
हुई विवसना श्यामला
अब वंशीधर
कौन।
कौरवता
इस दौर में
इतनी हुई असीम
दुःशासन के
सामने
बौने अर्जुन-भीम।
नायक-खलनायक हुए
अब इतने समरूप
लगे
वक्त का चेहरा
धरे विदूषक रूप।
रहने दो
अब मत कहो
दया करो हे व्यास
पिघले
शीशे-सा हुआ
रक्त-सना इतिहास।
५ जनवरी २००९ |