पिता सरीखे गाँव
तुम भी कितने बदल गए
ओ पिता सरीखे गाँव।
परंपराओं-सा बरगद का
कटा हुआ यह तन
बो देता है रोम-रोम में
बेचैनी सिहरन
तभी तुम्हारी ओर उठे ये
ठिठके रहते पाँव।
जिसकी वत्सलता में डूबे
कभी-कभी संत्रास
पच्छिम वाले उस पोखर में
सड़ती है अब लाश
किसमें छोड़ूँ सपनों वाली
काग़ज़ की यह नाव।
इस नक़्शे से मिटा दिया है
किसने मेरा घर
बेखटके क्यों घूम रहा है
एक बनैला डर
मंदिर वाली इमली की भी
घायल है अब छाँव।
16 फरवरी 2007
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