सलीबों पर टंगे दिन
अब सलीबों पर टँगे हैं
फूल-से महके हुए दिन।
भीड़ के पहियों तले
कुचली हुई पाँखें
धुंध में पथ खोजती
कुहरा गई आँखें
समय की हथकड़ी पहने
गंध-से बहके हुए दिन।
सींखचों के पार बंदी
सिसकियाँ सोईं
देह टूटी साँझ वन में
भटक कर खोईं
ढो रहे निवास-यात्रा
धूप-से दहके हुए दिन।
परिचयों की चूड़ियाँ
कल टूटकर बिखरीं
शिलाओं की पर्त अब
हर साँस पर उभरीं
उड़ गए अनजान नभ से
विहग-से चहके हुए दिन।
16 फरवरी 2007
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