महानगर में संध्या
महानगर के बाज़ारों में
गिरह काटती धूसर संध्या।
स्वेद-सिक्त धकियाते चेहरे
रुद्ध राह है, पग पथराए
रक्त-जात संबंधों को भी
रहे बाँट गूँगे चौराहे
यहाँ रोज़ ईमान ख़रीदे
बेच झील पेशेवर संध्या।
दिशा-हीन अंधी भीड़ों में
रहा खोज क्या निपट अकेला
लुटा राह में बनजारों-सा
गया छूट पीछे वह मेला
सूख गीत के अंकुर जाते
भूमि नागरी ऊसर वंध्या।
बनी बेड़ियाँ हैं अनदेखी
वर्ण-गंध की मधु छलनाएँ
लिए वंचना का बोझा हम
कहाँ-कहाँ की ठोकर खाएँ
विहग फाँस कर विश्वासों के
पंख कतरती निष्ठुर संध्या।
16 फरवरी 2007
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