कस्बे की साँझ
पीपल, बरगद, नीम ये
सब गूलर के फूल
चौरस्ते
अब झूलते
थूहर और बबूल।
हैंडल पर
खाली टिफिन
घर को चले मुनीम
आसमान पलकें झँपे
गटके हुए अफीम।
टाँगे, खच्चर, रेहड़ी
मुड़े गाँव की ओर
साँझ हुई
अब थम गया
गुड़-मंडी का शोर।
कहाँ बचेंगे टेंट में
मजदूरी के दाम
बैठी लेकर राह में
ठर्रा
ठगिनी शाम।
कस्बे में जब से खुली
राजनीति की टाल
अफ़वाहों-सा
फै...ल...ता
धूल-धुएँ का जाल।
चूल्हे-चौके की हुई
खटर-पटर अब बंद
आँगन में
बस गूँजते
चुप्पी के ही छंद।
बर्फ़ सरीखी हो गई
नीचे बिछी पुआल
राम हवाले
भोर तक
इस कुनबे का हाल।
५ जनवरी २००९ |