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जोड़ियों को तो
बनाता है सदा रब
यह धनुष तो वज्र का जैसे बना है
टूटता ही नहीं,
फिर-फिर लौटते हैं जनक असफल थके हारे
सिर झुकाये स्वयं से संवाद करते
पूछते-क्यों बेअसर हो गये फिर से
सगुन सारे
लिये वन्दनवार
मालिन राह में मिलती कभी जब
दृष्टि पृथ्वी पर गड़ाये बहुत तेजी से निकलते
और सखियाँ लौटतीं ससुराल से जब
माँ बहुत उद्विग्न रहतीं उन दिनों हैं
आँख में आँसू मचलते
पस्त होते हौसलों में भी निकल पड़ते पिता फिर
एक टूटी नाव ज्यों
तूफान में खोजे किनारे
रूप-रंग, कद, आयु, शिक्षा
कुण्डली, कुल दक्षिणा-संकल्प क्या है
पूछते सब
और फिर कोई बहाना खोजकर
कुछ वेदना के भाव दिखलाकर बताते
जोड़ियों को तो बनाता है सदा रब
बहुत पहले बताते थे
पर नहीं कुछ बोलते अब लौटने पर
पूछती माँ भी नहीं, केवल निहारे
२५ फरवरी २०१३
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