क्षमा बापू
टीसता था मन तुम्हारे वास्ते
पल भर नहीं तुमको भुलाया, क्षमा बापू
विवशता थी चाह कर भी
मैं तुम्हारे काम कोई आ न पाया, क्षमा बापू
सीप जैसे रेत कण को
स्वाति-जल से पोस कर मोती बनाती
और मिटती स्वयं है इस प्रक्रिया में
ठीक वैसे अभावों से युद्ध करते
भूख तक पर रख नियन्त्रण
ले गये थे राजपथ तक मुझे, मेरा हाथ थामे
कौन सुख भोगा न जाने सीप पगली ने
कि तुमने सीप जैसा मन बनाया, क्षमा बापू
आह! अन्तिम समय में भी
देख मोती की दमक को
साँस संयत हो गयी थी एक पल को
तृप्ति तिरती दिखी आँखों में
वही तो सन्तोष की आभा हृदय को देखती रह-रह
बहुत धिक्कारती है छटपटाता हूँ
विधा अनगिन सलाखों में
जिसे समझा था सफलता
आज उससे स्वयं को ही छाला पाया, क्षमा बापू
-मृदुल शर्मा
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