अनुभूति में
जय चक्रवर्ती की रचनाएँ
नये गीतों में-
काम आता ही नहीं कुछ
तुम भी बदलो पापा
मेरे गाँव में
रहे जब तक पिता
सच सच बताना
गीतों में-
कभी किसी दिन घर भी आओ
किसकी कौन सुने
खड़ा हूँ बाजार में
खत नहीं आया
चलो रैली में
पिता
बना रहे
घर जैसा घर
महँगाई भत्ता
ये दिल्ली है
राजा जी हैं धन्य
दोहों में-
राजनीति के दोहे |
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पिता
घर को
घर रखने में
हर विष पीते रहे पिता
आँखों की
गोलक में संचित
पर्वत-से सपने
सपनों में
संबंधों की खिड़की
खोले अपने
रिश्तों की चादर
जीवन-भर
सीते रहे पिता
अपने ही साये
पथ में
अनचीन्हे कभी हुए
कभी बिंधे
छाती में चुपके
अपने ही अँखुए
कई दर्द
आदमकद
पल-पल जीते रहे पिता
फरमाइशें, जिदें-
जरूरतें
कन्धों पर लादे
एक सृष्टि के लिए
वक्ष पर
एक सृष्टि साधे
सबको भरते रहे
मगर
ख़ुद रीते रहे पिता
५
दिसंबर २०११ |