अनुभूति में
जय चक्रवर्ती की रचनाएँ
नये गीतों में-
काम आता ही नहीं कुछ
तुम भी बदलो पापा
मेरे गाँव में
रहे जब तक पिता
सच सच बताना
गीतों में-
कभी किसी दिन घर भी आओ
किसकी कौन सुने
खड़ा हूँ बाजार में
खत नहीं आया
चलो रैली में
पिता
बना रहे
घर जैसा घर
महँगाई भत्ता
ये दिल्ली है
राजा जी हैं धन्य
दोहों में-
राजनीति के दोहे |
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महँगाई भत्ता
बहुत दिनों के बाद बढ़ा
कुछ महँगाई-भत्ता
हरा हुआ सपनों की बगिया
का पत्ता-पत्ता।
जोड़-घटाना–गुणा-भाग का
दौर चला दिन-भर
गणित गृहस्थी का आया
थोड़ा आसान नजर
ऐसा लगा मिली हो जैसे
दिल्ली की सत्ता।
नहीं रुकेगा बड़की का अब
बी ए बिन पैसे
घर का खर्च चला लेगी
पत्नी जैसे-तैसे
बनवा देंगे छुटकी को भी
कुछ कपड़ा-लत्ता।
मुन्ने को विद्यालय का
रिक्शा लगवा देंगे।
हम बूढ़ी साइकल से अपना
काम चला लेंगे।
हमे कहाँ जाना रहता है
दिल्ली-कलकत्ता।
महँगाई में महँगाई भत्ता ही
क्या कम है
जीवन के दुखते घावों पर
कुछ तो मरहम है
वेतन तो लगता है
जैसे बर्रै का छत्ता।
२७ अक्तूबर २०१४ |