सूर्य- तीन
कविताएँ
सूर्य : एक
हे सूर्य
तुम रोजाना जन्म लेते हो
नवजात शिशु की तरह
नंग-धड़ंग
लेकिन
जैसे ही सांसारिक जीवन में
प्रवेश करते हो
अहम की गर्मी में
सुलगने लगते हो
स्वयं को छिपा लेते हो
स्वार्थ-रूपी किरणों के लबादे में
और बढ़ जाते हो
बेधड़क
अपने सुनिश्चित मार्ग पर
शोले बरसाते हुए
लेकिन
अंत समय
छोड़ देता है
वह लबादा भी तुम्हारा साथ
और तुम
स्वयं ही दफन हो जाते हो
पश्चिम में नंग-धढ़ंग
जी लेते हो
कुछ ही घंटों में
एक जीवन
जिसे जीने में मनुष्य को
वर्षों लग जाते हैं
सूर्य : दो
मैं/रोजाना/सुबह
आँखों में आशा की नई किरण
दिल में हजारों अरमान
मन में नई उमंग लिए
निकलता हूँ
घर से बाहर
बेरोजगार सूर्य की तरह
रोजगार की तलाश में
दिन भर सड़कों पर
भटक-भटक कर
जब थक जाता हूँ
तो देखता हूँ
सूर्य को
अपनी ही तरह
स्वयं पर झुझलाता/तमतमाता हुआ
जोकि/निराश होकर
लौट रहा होता है
अपनी खोली में
मेरी ही तरह
नई सुबह के इंतजार में
सूर्य : तीन
सूरज
तुम क्यों लगाते हो चक्कर
रोजाना/पूर्व से पश्चिम की ओर?
किसकी तलाश है तुम्हें?
किसे ढूँढते फिरते हो
पागलों की तरह?
लोग कहते हैं
तुम
रोजाना जन्मते हो
रोजाना मर जाते हो
लेकिन मैं नहीं मानता
क्योंकि
जानता हूँ / तुम्हें
किसी की तलाश है
११ जनवरी २०१० |