अनुभूति में
दुर्गेश गुप्त 'राज' की रचनाएँ-
नई रचनाएँ छंद मुक्त में-
प्रतिशोध
मैं खुश होऊँगा
सूर्य- तीन कविताएँ
गीतों में-
अनुबंध
आज में जी लें
आओ सिखाएँ प्रीत मीत हम
कर्मभूमि की यह परिभाषा
कौन सुनता है तुम्हारी बात अब
खुद से प्यार
मन मेरा यह चाहे छू लूँ
मेरा जीवन
बंजारा है
यादें जब भी आती हैं
ये शरीर है एक सराय
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आज में जी लें
आज जो है अपना लगता है
बीता कल सपना लगता है
कल क्या हो ये कोई न जाने
आओ हम सब आज में जी लें
दुख-दर्दों को बाँट के पी लें
अपनों की परिभाषा बदली
स्वार्थ समाहित संबंधों में
जीना भी ये क्या जीना है
कैद हुए हम प्रतिबंधों में
अर्थ हैं बदले संबोधन के
रिश्ते क्या ये कोई ना जाने
राखी तक नीलाम कर रहे
राखी हाथ बंधाने वाले
ऐसे हाथों में नफरत की
आओ हम सब ठोकें कीलें
दिल कुछ कहता- मन कुछ कहता
आंखें अपना राग अलापें
झूठ - फरेब की इस दुनिया में
बतलाओ सच कैसे आँकें
खादी धारण किये मगर तन
कलुषित औ' मन भ्रष्ट हुआ है
भ्रष्टाचार बना है राजा
शिष्टाचारी त्रस्त हुआ है
आओ क्यों न इस तम युग में
थोड़ा-सा गांधी बन जीलें
१६ जुलाई २००६ |