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अनुबंध
आज में जी लें
आओ सिखाएँ प्रीत मीत हम
कर्मभूमि की यह परिभाषा
कौन सुनता है तुम्हारी बात अब
खुद से प्यार
मन मेरा यह चाहे छू लूँ

मेरा जीवन बंजारा है
यादें जब भी आती हैं
ये शरीर है एक सराय

 

प्रतिशोध

आज मैं घूमा हूँ
सारी रात
सड़कों पर आवारा-सा
भटकती-आत्माओं के साथ.
भोपाल काण्ड/पंजाब काण्ड/कश्मीर काण्ड
और न जाने बीसवीं सदी के
कितने ही वीभत्स-काण्डों की
शिकार आत्माएँ
थामे हुए थीं मेरा हाथ
और आग्रह कर रहीं थीं
इस संबंध में
कुछ न लिखने-
के लिए
झकझोर कर रख दिया था
उन्होंने मुझे
सुना-सुनाकर अपनी व्यथाएँ
सुलग रहीं थीं बदले की आग में
वे बदला किसी मानव से नहीं
बल्कि
इस ज़हरीले वातावरण से लेना चाहती थीं
जिसने
समय की रगों में बहते-
रक्त को
ज़हरीला बनाकर
रख दिया है
जाते-जाते कह गईं हैं
कवि
तुम कुछ न लिखो
मानव तो निर्दोष है
तुम कुछ भी न कर सकोगे
क्योंकि
वातावरण को दोष है
और
वातावरण से बदला लेना
तुम्हारे वश की बात नहीं
ये हमारा मामला है
इससे हम ही निपटेंगे
ये हमारा मामला है
इससे हम ही निपटेंगे

११ जनवरी २०१०

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