अनुभूति में
दुर्गेश गुप्त 'राज' की रचनाएँ-
नई रचनाएँ छंद मुक्त में-
प्रतिशोध
मैं खुश होऊँगा
सूर्य- तीन कविताएँ
गीतों में-
अनुबंध
आज में जी लें
आओ सिखाएँ प्रीत मीत हम
कर्मभूमि की यह परिभाषा
कौन सुनता है तुम्हारी बात अब
खुद से प्यार
मन मेरा यह चाहे छू लूँ
मेरा जीवन
बंजारा है
यादें जब भी आती हैं
ये शरीर है एक सराय
|
|
खुद से प्यार
दिल की डोर बंधी सांसों से,
मन मेरा गुलजार हो गया
मुझको खुद से प्यार हो गया
रिश्ते नातों के ये बंधन
मुझको रास न आये
मेरा मन इक बंजारा मन
जहां चाहे रम जाये
मेरा अपना दर्र्दो गम ही,
स्वत: मेरा श्रृंगार हो गया
मुझको खुद से प्यार हो गया
जाति न मजहब मेरा कोई
ना ही कोई ठिकाना
प्यार की भाषा जानूं मैं बस
दूर बहुत है जाना
जहां रूका मैं पल दो पल को
वहीं मेरा संसार हो गया
मुझको खुद से प्यार हो गया
प्रेम- शांति का मैं संवाहक,
सबको राह दिखाऊंगा
रक्त सभी का एक रंग है
ये सब को समझाऊंगा
मिटा सका गर घृणा- द्वेष मैं
समझूंगा उद्धार हो गया
मुझको खुद से प्यार हो गया
१६ जुलाई २००६ |