कर्म-भूमि
की ये परिभाषा सुबह
धूप-सी उजली दिखती
शाम उतरते कजलाती है
जीवन की भाषा द्वि-अर्थी
अक्सर मुझको भटकाती है।
मृगतृष्णा छलती आँखों को
मन भ्रम में उलझा रहता
दिल संशय के चौराहे पर
सहमा-सा बहका फिरता
विषय और संदर्भ की भाषा
प्रतिपल मुझको भरमाती है।
उठना-जगना फिर सो जाना
नित्य यही सब होता है
कोई चैन की बीन बजाता
कोई जीवन ढोता है
कर्मभूमि की ये परिभाषा
समझ नहीं कुछ आती है।
१६ फरवरी २००९ |