साँझ ढले
भोरहरे के
भागे पंछी
फिर लहके साँझ ढले।
बैठे शाखों पर सिर के ऊपर
चहके साँझ ढले।
पाथर कूटते
खपीं साँसें
मिट्टी ढोते उभरें।
हाथों-पाँवों से फूटी-बहीं
पसीने की नहरें।
फसलों के दाने तब चूल्हे पर
महके साँझ ढले।
ऊँचाई के किस्से
मंज़िलें गढें जिन यारों में।
हम सारी रात उन्हें तकते हैं
चाँद-सितारों में।
जो आ जाते बाहों में
बहके-बहके साँझ ढले।
कब छूटेगा परदेश
देस की बोली लौटेगी।
इस नई हवा की- 'गन' से छूटी
गोली लौटेगी।
या यों ही हम हुड़केंगे बस,
रह-रहके साँझ ढले
फूटती जवानी
जौगर से
ज्यों चोटों से चिनगी।
रोशनी फूटती भरे पेट-
सिर पर फूटी कलंगी।
पर, असगुनही चिड़िया पर्वत पर
चिहुँके साँझ ढले।
२६ अप्रैल २०१० |