दुख से सुख का रिश्ता
दुख से
सुख का रिश्ता है
जैसे हमसे-तुमसे है।
बाहर के बम से
ज्यादा डर भीतर के बम से है।
सब नसें
सुरंगों-सी
पूरी काया में बिछा गए।
ये सपने कैसे हैं
जो अफरा तफरी मचा गए।
सेनानायक का महासमर तो
अपने गम से है।
मन की
सीमाओं पर
चौकसी बढ़ाने से भी क्या?
फूलों के माफिक अपना शीश
चढ़ाने से भी क्या?
दिल की तो खुद से लगी,
सिर्फ दिल्लगी सनम से है।
जितना टूटेंगे भीतर
बाहर जुड़ते जाएँगे।
मंजिल के पहले
दाएँ-बाएँ मुड़ते जाएँगे।
यह चलन ज़िंदगी का जिंदा
चलने के दम से है।
२६ अप्रैल २०१० |