अनुभूति में
रामकृष्ण द्विवेदी 'मधुकर'
की रचनाएँ—
अंजुमन में-
उफनाए नद की कश्ती
बढ़ाया प्रेम क्यों इतना
शिक्षा का संधान चाहिये
गीतों में-
बादल गीत
मोर पिया अब मुझसे रीझे
छंदमुक्त में—
किरन
जलकोश
जीवन सूक्त
दृष्टि
देखा है
नारी
प्रभात: दो रंग
पाँच छोटी कविताएँ
बुलबुला
साम्यावस्था
सावन
संकलन में-
हुए क्यों पलाश रंग रंगत विहीन
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देखा है
सागर की लहरों को चढ़ते और उतरते देखा है
सावन में मेघों को घिरते और बरसते देखा है
कोमल फूलों
को जग खातिर काँटों में भी हँसते गाते
सुरभित करने को हर कोना अपना मधुर पराग लुटाते
मतवाले ने तोड़ उसे जब फेंक दिया तपती धरती पर
कुचली कलिका को ग़म पीते और
सिसकते देखा है
मदनोत्सव में
रंगों का रंगों के संग आलिंगन करते
कुसुमाकर को नवल वधूटी अवनी के संग फाग खेलते
तपन-उमस-से-पीड़ित-जग-जब-रिमझिम-मेघ
मल्हार-सुने-तो
धानी चुनर ओढ़ सावन को
कजरी गाते देखा है
निविड़ तिमिर
की बाहों में सोये पथिकों को जागृत कर
उठ जाग हुई अब भोर नहीं सो मंज़िल का पथ तयकर
सुख हो या दुख पर मुसकाओ देकर के संदेश मधुर
ताम्र अरुण सूरज को उगते चढ़ते
ढलते देखा है
दिन की तपन
उमस से पीड़ित जग शीतल करने वाले
अपनी दिव्य ज्योति से सबको सम्मोहित करने वाले
सुंदरता के रूपक उपमा उत्प्रेक्षा मानवीकरण
विधु को दिनकर के उगते ही मुरझा
खो जाते देखा है
बार–बार ठोकर
खा गिरते गिरकर पुनः सम्हलते शिशु को
हार नहीं मानी जिन्होंने आफ़ताब बन जाते उनको
शांत दिख रहे जल के भीतर की भारी तूफ़ानी हलचल
राख पड़े अंगारे को भीतर से
धधकते देखा है
कुछ अपने
कर्मों से मरते को नवजीवन देते है
कुछ जीवंत चमन का जीवन पल भर में हर लेते हैं
स्वार्थ और परमार्थ युक्त इस घोर विषमतामय युग में
लोगों को जीते जी मरते मरकर
जीते देखा है
१६ मार्च २००६
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