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मेरे पिता

चुपचाप अन्धेरे में वे चल देते
शिखर के नीचे ढलान पर कुएँ की ओर
उसकी गहराई से पूछने
कि कैसे वह पहुँचा पाई
शिखर को
उसकी ऊँचाइयों तक
तभी तो
मेरी उँगली पकड़ कर उन्होंने मुझे
जो संस्कार दिये उसमें थी
कुएँ की गहराई
और कठोर हो कर, गुस्से होकर
भेजा जब पढ़ने
तो उनके आशिर्वाद में थी
शिखर की ऊँचाई

वे दिन भर व्यस्त हो जाते
एक सृजन को मूर्तरूप देने में
उनके दिल के आईने में थी चिंगारी
जिससे दग्ध होकर भी
वे मेरी नासमझियों का
प्रायश्चित करते रहे
उनकी मुस्कुराहट और लाली
थी खुद अपने गाल पर तमाचा लगाकर
पर कुछ मेरे अस्तित्व पर खुश होकर

इन गहराइयों से मुझे भयभीत पाकर
हँसाने के लिये
वे बच्चों सी हरकतें करने लगते
और इसी बचपने की आड़ मे
वे बो गये
मुझमे समझदारी का बीज
ताकि
वयस्क हो कर समझ सकूँ
झाँक कर देख सकूँ
उस बचपने की वयस्कता का बचपन।

१ मई २०२२

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