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अंतर्ज्योति
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जगमगाती आभा के बीच
कैसे जलाऊँ अपने ह्रदय में दीप
भीतर बस अँधेरा ही अँधेरा
अमावस की काली रात में
मंगलमय पर्व के
शुभ-संकेत के बावजूद
क्यों भयभीत हूँ इस प्रकाश से
सजे तोरण के निकट बँटती मिठाइयाँ
क्यों झिझकता हूँ कि
कैसे ले लूँ अपने मैले हाथों से।
फिर भी हिम्मत बाँध कर
बच्चों की भाँति खुश होकर
जलती फुलझड़ी के सिरे से
कोरी माटी का
एक पार्थिव दीया तो जला लूँ
भीतर कोई विस्फोट न सही
बाहर ही बाहर
कुछ पटाखे छोड़ लूँ
आँखों मे उत्साह की चमक लिए...
प्रार्थना कस्र्णामयी लक्ष्मी मैया से
इस अंतस मे भी लुटा दे
कुछ किरणें
मेरी नादान और भोली
अठखेलियों पर रीझ कर।
-हरिहर झा
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दीपकों की लौ
जगमगाते दीपकों के आलोक में
बचकाने पटाखों के कोलाहल में
छिपा एक खोखलापन
मन को कुरेद-कुरेद जाते हैं
यह कैसी दीवाली की रात
अंतस में अँधेरे का कुहासा
बाहर दिखावे की जगमगाहट
विरोधात्मक परिवेश में
घिसते हुए मानव
मन की छटपटाहट को
उधेड़-उधेड़ जाते हैं
दीपकों की लौ
एक दूसरे से अनभिज्ञ
अपने तले अँधेरे को ही
मिटाने मे व्यस्त
हवा के झोंके अब
हृदय के तारों को
बिखेर-बिखेर जाते हैं।
-शीतल श्रीवास्तव
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