फिर पहाड़ों से
झरना फिर पहाड़ों से दरिया बहे दूध का
दिल में फ़रहाद-सा हो अगर हौसला
सहमी-सहमी-सी देखी थीं आँखे जो कल
आज देखा जो उनमें, तो डर-सा लगा
कैसा बदला लिबासी चलन आज का
अब न आँखों में बाकी है शर्मो-हया
आग का यों लगाना-बुझाना
ग़ज़ब!
जाना-पहचाना हर एक चहरा लगा
अपने अधिकार की माँग है
लाज़मी
याद कर्तव्य भी अपने रक्खें ज़रा
स्वार्थ अपना ही जो सोचता आदमी
उससे उम्मीद कोई करे भी तो क्या?
उसका साथी परिंदा था घायल मगर
वो तो ऊँची उड़ाने ही भरता रहा
खाद-पानी पुराने शजर को भी दें
फर्ज़ बनता है 'देवी' नई नस्ल का
२ मार्च २००९
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