वृन्दावन की
विधवाएँ अराध्य,
मान कर ही तो उन्होंने भी
की होगी पूजा उसकी
शायद,
यह मानकर की थाम लेगा वह,
यह तेज़ बाढ-सी
जो पुरातन से चली आ रही है
यहाँ, शोषित होने
कभी,
खिली तो एक अध-खिली
और,
कभी भिखारन
तो एक पुजारन बनकर
वह,
दूर बैठा बस रास रचाता रहा
बासुरी की धुन में मगन,
गोपियों के इर्द-गिर्द लिपटा
नहीं, रोक सका है
वह देवकी नन्दन भी
उन विधवाओं को आने से
वृन्दावन की
इन तंग गलियों मे
५ अक्तूबर २००९
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