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अनुभूति में विजयेन्द्र विज की रचनाएँ-

नई कविताओं में-
आड़ी तिरछी रेखाएँ
ऋतुपर्णा तुम आज भी नहीं आयीं
जुगनुओं अब तुम सितारे हो गए हो
बेचैनी
वृंदावन की विधवाएँ
शब्द तुम


कविताओं में-
अक्सर, मौसमों की छत तले
अगर किसी रोज
अरसे के बाद
आँखें
एक और वैलेन्टाइन्स डे
कभी वापस लौटेगी वो
खोजो कि वो मिल जाए
दस्तावेजों की दुनिया
मुकर गए वो लोग
रंग ज़िंदगी की तरह
लाल बत्तियों में साँस लेता वक्
वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है

सोचता हूँ

 

वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है

दिल्ली की ठंडी सुबहों में
अक्सर
एक जिन्दगी को
देखा करता था
बुझते हुए,

वह पेड़ के तले
इर्द गिर्द बिखरे सिक्कों को
काँपते हाथों से
बीनने की नाकाम
कोशिश करती

कभी पास से गुजरते को
असहाय निहारती,
कभी ना जाने क्या बुदबुदाती

मैं जब भी
उसके पास से गुजरता
सहम जाता,
टटोलने लगता
जेब में पड़े चन्द सिक्के
तब जैसे मेरे हाथ सुन्न पड़ जाते

तमाम कोशिश के बावजूद
मेरा हाथ नहीं छूट पाता
मेरी जेब की गिरफ्त से,
और मैं तेज कदमों से
आगे बढ़ जाता

उसकी अस्पष्ट
पर रुह को कंपकपाँने वाली
बुदबुदाहट "बने रहो बाबू"
दूर तक पीछा करती मेरा

अब,
उसकी बुदबुदाहट
तब्दील हो गई है चीख में,

हालाँकि मैंने
बदल लिया है रास्ता
फिर भी वह आवाज
अक्सर मेरा पीछा करती है।

२० अप्रैल २००९

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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