|
अरसे के बाद
अरसे के बाद आज अचानक ही कुछ ख़याल जेहन में उभर आये.. बड़े ही
चटक हैं.. कहते हैं यादें अक्सर धुंधली हो जाती हैं..लेकिन यह तो
दिनोदिन और चटक होती जा रहीं हैं... हम बदल गएँ हैं.. लेकिन भाषा
वही है और लोग भी.. बस वक्त काफी आगे चला गया है महज ३० बरस
आगे.... इन यादों को शब्द देने की कोशिश भर की है.. लय तो उतनी
नहीं आ पायी है.. हाँ कविता समझ सकते हैं या फिर ख़याल... या
कहानी गढी जा सकती है…
अब वहां के पेडों में,
सावन के झूले नहीं पड़ते..
सब सूख गए हैं..
अब कोई लम्बी पेंगे नहीं भरता..
वहां की औरतें
बारिश के दिनों में बरसाती ओढे हुए
धान लगाते समय अब कोरस नहीं गातीं...
सब कुछ बदल गया है..
किसी के भी चौपाल पर
शाम होते ही आल्हा के सुर नहीं उठते...
और,
ना ही किसी भी मौके में मोछई के..
एलपी की वह धुन...
"ये गोटेदार लहंगा निकलूँ जब डाल के..."
भिक्खू कुम्हार का चाक अब नहीं चलता
और न ही उसका आवाँ सुलगता..
सैरा गाना भी उसने बंद कर दिया है..
दूर-दूर तक कहीं खेत नजर नहीं आते ..
और न ही आम महुए के पेड़...
बदौव्वा बगहा भी अब उजड़ चुका है..
जैसे कभी वहां था ही नहीं..
उस ठूँठ हो चुके बड़े बरगद से
वहां बगहा के होने का अनुमान लगता है..
अब कहीं भी गायों का झुंड नहीं दीखता
कोई भी औरत गोबर लीपती नजर नहीं आती..
और न ही,
बिशेशर अब बारिश में अपनी टपकती छत दबाता है..
कोल्ल्हौर तो अब कहीं रहे ही नहीं..
ऊंख का कहीं नाम निशान ही नहीं रहा..
गुड़ की महक अब कहीं से नहीं उठती
और न ही केशन राब का शरबत पीता...
छिटुवा की महतारी
अब उसे खेत में खाना देने नहीं जाती..
कल्लू भुन्जवा अब भाड़ नहीं जलाता ...
उसके मकान की जगह सजीवन ने
पान की गुमटी खोल ली है..
शादियों में बाद्द-दार बीन नहीं बजाते
और ना ही निकाशी के समय दूल्हा कल्लू भुन्जवा के भाड़ तक जाता..
बन्ने तो अब गाये ही नहीं जाते..
पालकी भी कहीं नजर नहीं आती..
बारातों में रोशनी के लिए हंडे नहीं जलते..
और ना ही रवाइशों का इस्तेमाल होता..
रामकेश की मेहरिया गाँव की परधान नहीं रही..
बिरजा-दादा की चौपाल में
ताश के पत्ते नहीं खेले जाते ..
गंगापारी की आवाज पूरे गाँव में नहीं गूंजती
और ना ही, जैराम अब अपनी एक-नाली बन्दूक
साफ़ करता..
पप्पू अब जमनी खाने मर्दनपुर नहीं जाता
और न ही ललुवा भैंस को पानी पिलाने
कच्चे ताला आता..
रजुवा अब कहीं दिखाई नहीं देती
रमकन्ना अब उससे चुहल-बाजी करने नहीं आता..
बैजनाथ के दुवारे अब नौटंकी नहीं होती..
और ना ही दंगलवा बगहा में अब दंगल लगता..
बजरंगी मास्टर ने पढाना बंद कर दिया है..
जगदेव मास्टर अब रहा ही नहीं..
सुमन और रेनू अपने घर के पिछवाड़े खड़ी नहीं होतीं
परधान और रेखा अब कोइला में नहीं मिलते ..
पराग लोहार के दुवारे वाले कुएं से जमना पानी लेने नहीं आती..
और ना ही शीला कमलेश से मिलने जाती..
ननकी काकी घर-घर हाल पूछने नहीं आती..
खटमलुवा तो अब कहीं नहीं दिखती..
लालमन कह रहा था की दस बरस पहले शहर में दिखी थी......
……………………………
बस अब और नहीं..
बड़े ही सवाल जेहन में उभर कर आ रहे थे ..
चलचित्र की भांति ...
शायद, यादें हसीन ख्वाब बन गयीं हैं..
कुछ भी नहीं रहा अब,
…रघुबर काका की बुझी सी आवाज कानों में पडी..
कौन सा पेज पढ़ रहे हो बच्चा..?..
यह तो पेज नम्बर पांच की चीजे हैं..
पैंतीस में कैसे दिखेंगी....
हंसीन ख्वाब अब जमीन पर आ गए थे..
हाँ काका…
कहाँ गए आखिर ..बीच के.. उनतीस-तीस पेज...
२० अप्रैल २००९ |