अनुभूति में विजयेन्द्र विज की रचनाएँ-
नई कविताओं में- आड़ी तिरछी रेखाएँ ऋतुपर्णा तुम आज भी नहीं आयीं जुगनुओं अब तुम सितारे हो गए हो बेचैनी वृंदावन की विधवाएँ शब्द तुम कविताओं में- अक्सर, मौसमों की छत तले अरसे के बाद आँखें एक और वैलेन्टाइन्स डे कभी वापस लौटेगी वो खोजो कि वो मिल जाए दस्तावेजों की दुनिया मुकर गए वो लोग रंग ज़िंदगी की तरह लाल बत्तियों में साँस लेता वक्त वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है सोचता हूँ
आड़ी तिरछी लकीरें
तुम, बस दूर खड़े एक मूक दर्शक की भाँति आवाक देखते रहे
और, मुझे उन चन्द आड़ी-तिरछी लकीरों ने असहाय बना दिया
तुम!!! चाहते तो रंगो की एक दीवार खड़ी कर सकते थे
५ अक्तूबर २००९