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बेचैनी
कई दिनों से
पन्ने पलटे नहीं
सारे सफेद से पड़ गए हैं
कुछ धुँधले भी
जैसे,
कभी कुछ लिखा ही न गया हो
जाने कब रंगे जाएँगे
लाल, पीली, नीली
और हरी स्याही से
कभी कुछ अक्स उभरते तो हैं
पर गड्ड-मड्ड हो जाते हैं
एक पल मेँ
कोई भी शब्द एक
सीधी लकीर पर नहीं दौडते
कभी कुछ चलते तो है
पर थक-कर चूर हो
आधे रस्ते से वापस आ जाते हैं
मैं इन्हे पकडना चाहता हूँ
उँगलियों से इन्हें छूना चहता हूँ
इन पर अपने निशान छोड़ना चाहता हूँ
पर मेरे हाथ लगाते ही यह
छुई-मुई से मुरझा जाते हैं
५ अक्तूबर २००९ |