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अनुभूति में विजयेन्द्र विज की रचनाएँ-

नई कविताओं में-
आड़ी तिरछी रेखाएँ
ऋतुपर्णा तुम आज भी नहीं आयीं
जुगनुओं अब तुम सितारे हो गए हो
बेचैनी
वृंदावन की विधवाएँ
शब्द तुम


कविताओं में-
अक्सर, मौसमों की छत तले
अगर किसी रोज
अरसे के बाद
आँखें
एक और वैलेन्टाइन्स डे
कभी वापस लौटेगी वो
खोजो कि वो मिल जाए
दस्तावेजों की दुनिया
मुकर गए वो लोग
रंग ज़िंदगी की तरह
लाल बत्तियों में साँस लेता वक्
वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है

सोचता हूँ

 

ऋतुपर्णा तुम आज भी नहीं आई

आज कुछ
धुँधली पड़ गई लकीरों को
फिर से गाढा किया

उन पर कुछ रंग फेंके
लाल हरे नीले सफेद

अब
कैनवस का कोई हिस्सा
खाली नहीं रहा

बड़ी खामोशी के साथ
उन फैले पड़े रंगों को
घंटो निहारता रहा

अचानक,
गाढ़ी पड़ चुकी लकीरें
अब अस्पस्ट नज़र आने लगी
और फिर,
पूरा का पूरा कैनवास खाली
बिल्कुल सफेद
जैसे कभी वहा रंग थे ही नहीं..
फ़ीकी पड़ चुकी लकीरें
अब शब्दों में तब्दील हो गई

हाँ..यही शब्द तो थे
रितुपर्ना तुम आज भी नहीं आयी

५ अक्तूबर २००९

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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