अनुभूति में
श्रीकांत सक्सेना की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
इंतजार
कमीज
कि तुम बड़े हो
क्यों मन चाहता है
जिंदगी
मुझे नहीं मालूम
समूह का चक्रव्यूह
छंदमुक्त में-
जिन्दा हो
बाजार
बेटी
भीतर कोई है
सुबह खुल रही है फिर से
सुरक्षा
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ज़िन्दा हो
तुम ज़िन्दा हो
अगर ज़ुल्म देखकर
धधक उठती है तुम्हारी आँखें
रगों को फाडकर
बहार निकलने को मचलता है लहू
तुम सुन्दर हो
अगर लगातार जूझने के निशानो से
सजा हुआ है तुम्हारा जिस्म
अगर तुम्हारे पास है
मार खाकर भी
न हारने का मिज़ाज
रूटीन को तोडने का हौसला
अगर
तेज़ धार के बीच
तुम खडे रह सकते हो-बेखौफ़
नदी का रुख मोडने के अज़्म के साथ
अगर ज़ुल्म से टकराने को
उठते है तुम्हारे हाथ
तो वाकई
तुम ज़िन्दा हो
५ सितंबर २०११
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