अनुभूति में
श्रीकांत सक्सेना की रचनाएँ-
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मुझे नहीं मालूम
समूह का चक्रव्यूह
छंदमुक्त में-
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बेटी
भीतर कोई है
सुबह खुल रही है फिर से
सुरक्षा
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मुझे नहीं मालूम
मुझे नहीं मालूम
क्या है कविता
मगर जब भीड़ में खुद को टटोलता हूँ मैं
एक आश्वस्ति
एक निश्चिंत निश्छलता
मेरा हाथ थाम लेती है
रिश्ते मुझको रहस्य लगते हैं
जैसे सोचना और छलना
सोचना असुरक्षा है, असुविधा भी
जैसे बारिश में बिना छाते के निकल पड़ना
तब जब बादल और भी गहरा रहे हों
सबसे बड़ा रहस्य यही
कि मैं रहस्य को सोचता हूँ
कड़ाके की सर्दी में
सूरज की नर्म किरणों के दामन में
आँखें मूँदकर सोचना
कि रौशनी का कीमिया क्या है ?
क्या ये पर्याप्त नहीं है?
कि पेड़ हरे हैं
पानी तृप्ति दे रहा है
और धूप जिस्म को गरमाहट दे रही है
क्या इस सबका आत्यंतिक तत्व यही है
कि आत्यंतिक कुछ नहीं है
क्या मैं सिर्फ़ उन चीज़ों के बारे बतियाता हूँ
जिन्हें मैं बिल्कुल नहीं जानता
या बहुत कम जानता हूँ
मुझे नहीं मालूम
फूल कहाँ खत्म हुआ
और पेड़ कहाँ से शुरू हुआ
बड़ा बेढ़ंगा है ये फूल
जो इतना खुरदरा और सख़्त है
क्या खुरदरापन पेड़ है और कोमलपन फूल?
या दोनों ही सिर्फ़ सुविधाएँ हैं मेरे लिये ?
मुझे नहीं मालूम
चांदनी कहाँ से ख़त्म होती है
और चांद कहाँ से शुरू होता है
रिश्ते रहस्य हैं
खाई में,पहाड़ में
निर्मितियों में,पहाड़ में
पानी में प्यास में
मुझमें और मेरे आस-पास में
मैं कहाँ ख़त्म होता हूँ
और ख़ुदा कहाँ से शुरू होता है?
मुझे नहीं मालूम
३० जनवरी २०१२ |