|
सुबह खुल रही है फिर से
वक्त का प्रवाह थम के चल
पड़ा
मै चलूँ या ठहर जाऊँ
सोचता है पल खड़ा
खुद को पुनः सँजोने की
निष्क्रिय साधना पूर्ण हुई
रात छँटी
सम्भावनाओं की
कोपलें जगीं फिर से
आकाश अब आवेश से आरक्त है
ये जागने का वक्त है
फिर से सूर्य जगाता है
फिर से कर्म बुलाता है
आँखों के नन्हे सूरज
सूरज के साथ चमक उट्ठे
सुबह खुल रही है फिर से
स्वागत करो, उठो, सँभलो
काल नदी का रुख बदला
तुम भी अपना रुख बदलो
५ सितंबर २०११
|