प्रेम : दस और
दोहे
पानी सम निर्मल सदा, कोमल पुष्प
समान।
निष्कलंक छबि सूर्य सम, मधुर प्रेम पहचान।।
भाव समाधी प्रेम इक, गहरी और
अथाह।
मोक्ष कामना से रहित, पिया मिलन की चाह।।
स्वप्न नगरी छूटे नहीं, मन रहे
सदा उदंत।
प्रेम कहाता है वही, संग होंय जो कंत।।
जीवन का इक सुखद क्षण, प्रेम
कहाता सोय।
सो क्षण मम जीवन लहै, जगत कामना होय।।
तन मन वारे पर मिलत, सहज लुटाये
दून।
प्रेम कहाता है यही, जिसका अलग जुनून।।
फीका सब कुछ प्रेम बिन, प्रेम
को दीजे दाद।
जैसे नीरस आम को, चखे मिले ना स्वाद।।
गुण अवगुण परखे बिना, अपना जो
हो जाय।
मिलते मन अनयास जब, पे्रम वहीं कहलाय।।
प्रेम इक पावन भावना, मन पावन
कर देत।
तन मन निर्मल करत है, पाप कलुष हर लेत।।
जग सारा जब सो रहा, उठ मन पिय
सुधि खोय।
प्रेम जानिये तब वही, नयन बिरह में रोय।।
प्रेम की परिभाषा करत, शब्द रहे
सकुचाय।
ढाई आखर प्रेम में, बह्म जो रहा समाय।। |