ये कहाँ ज़िंदगी भी ठहरी है
ये कहाँ ज़िंदगी भी ठहरी है
जनता गूँगी है, सत्ता बहरी है।
उस दिये को बुझाना नामुमकिन,
जिसका तूफ़ान ख़ुद प्रहरी है।
आदमी हँस के आदमी से मिले,
कौन समझेगा चाल गहरी है।
फिर से सीता न धोखा खा जाए
आज भी मृग बड़ा सुनहरी है।
चाँदनी धूप, छाँव या कि हवा
न मिलेंगे, मकान शहरी है।
हम बदल देंगे भाग्य कर रेखा
हाथ की गो लकीर गहरी है।
9 जून 2006
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