समय
की चादर
अभी समय की चादर को
बिछाया है
दिन के तकिए को सिरहाने रखा है
ज़िंदगी का बहुत सा अधबुना हिस्सा यों ही पड़ा है
शहर में किस को मालूम
है
अधबुनी ज़िंदगी कितनी कीमत माँगती है
कोई नहीं बताता प्यार के धागों का पता
अपने शहर को प्यार की
खुमारी से देखते हुए
एक अजनबी की मुस्कान में मिलते हैं प्यार के धागे
ज़िंदगी ने अपनी मुस्कान को पूरा कर लिया है
आज दिन के तकिए पर सिर
रख कर
ज़िंदगी समय के चादर पर सो रही है
१६ मई २००६ |