झील-
तीन कविताएँ
झील
-१
झील
और मैं
ओ झील तुम वह नहीं
रहीं
जो थीं मेरी आँखों में कभी
मैं तुम्हारे किनारों पर
न जाने किसका इंतज़ार करता था
तुम्हारा प्यार लिए हुए
शायद मैं भी बदल गया
हूँ
मेरे रिश्ते तुमसे टूट गए
मैं क्या था तुम्हारे सामने
मैं क्या हूँ तुम्हारे सामने
शहर की तरह तुम्हारी लहरों को
ग्रसता हुआ एक धुआँ
झील
-२
झील
और सुंदरता
ओ झील तुम शहर की
सुंदरता थीं
तुम्हारी लहरें तुम्हारे लहराते बाल
तुम थीं लहराती
तुम थीं वक्त की दोस्त
तुमने ओढ़ी थी हरियाली की चुनर
तुम्हारे किनारों पर थी फुलकारी गोट
अब मैं गवाह हूँ
एक शहर की सबसे बड़ी त्रासदी का
मेरा दुख है मेरे आँसुओं से
तुम्हारे किनारों पर कुछ पैदा नहीं होता
झील
-3
ओ मेरी झील
ओ मेरी झील
मैं वक्त के साथ घूमता रहा
दुनिया की हसीन वादियों में और तुम
उदास होती गईं भोपाल में रहते रहते
तुम सिकुड़ती गईं संकोच
में
मैंने एक शहर बन कर
तुम्हारे आँचल में घर बनाया
अपनी छत से तुम्हे सूखते देखा
तुम्हें उदास होते देखा
ओ झील लहराओ
तुम्हारे लहराने से लहराएगा मेरा शहर
लहराएँगे पक्षी लहराएँगे पार्क
ओ झील अपने किनारों
मेरे और मेरे शहर के अपराध माफ़ करना
मैं तुम्हारे किनारों
का साथी हूँ
मैं तुम्हारा कवि हूँ
२ नवंबर २००९ |