अनुभूति में अमरेन्द्र
सुमन
की रचनाएँ—
नई रचनाओं में-
अपने ही लोगों को खिलाफ
एक पागल
बुचुआ माय
छंदमुक्त में-
अकाल मृत्यु
अगली पंक्ति में बैठने के क्रम में
उँगलियों को मुट्ठी में तब्दील करने की
जरुरत
एक ही घर में
धन्यवाद मित्रो
नाना जी का सामान
नुनुवाँ की नानी माँ
फेरीवाला
रोशनदान
व्यवस्था-की-मार-से-थकुचाये-नन्हें-कामगार-हाथों-के-लिये
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व्यवस्था की मार
से थकुचाये नन्हें
कामगार हाथों के लिये
जिन्दगी की उदासीनता की
गीली रेत से तैयार ढाकों में
ढिबरियों के धुओं के घुटन से आजिज
अपनी उम्र की छोटी-छोटी सोचों के दायरे से
आगे निकल
खेत-बहियारों को लाँघते-फलाँगते
व्यस्त इमारतों की दराजों की ओर बढ़ना जारी है
नन्हें से अँकुराते हाथ-पैरों का काफिला
चढ़ते-उतरते ख्यालों का ताना-बाना बुन रहे वे
ढो रहे होते हैं अपने अशांत मन के कंधे पर
पिता के दीर्घायु जीवन की थक कर उदास हुई वैसाखी
छींटाकशी के गुलाल की अप्रत्यक्ष मार से परेशां
माँ की आस्था की तुलसी का विरवा
भैयादूज मनाती बहनों के हाथों की मेंहदी
हथेली की कानी उँगली से
अब नहीं चाहते वे बित्ते भर जमीन खोद
अपने फिजूल सी सोंचो के आँगन में
आराम के बौने व्यक्ति को जन्म देना
उनके लिये अज्ञात नहीं है
अँगूठे से ललाट के मध्य असीमित रगड़ से
मिलने वाली असंभव सी राजगद्दी का रहस्य
हवा से बातें करने वाले मासूमों की
रोजमर्रा की जिन्दगी में
बँधे काम के घंटों के अतिरिक्त
नहीं है शामिल छिपकर
गूलर के फूलों को खिलते देखना
मजबूरियों की सड़क पर
अपनी कच्ची उम्र के हाथों से
न निर्धारित समय तक
उन्हें प्राप्त है अवसर खींचने का
समाजवाद के बैनर की लम्बी दूरी तक की बैलगाड़ी
भय चिन्ता निराशा से हटकर
अपनी अलग दुनिया में खोए
वे साबित हो चुके हैं अब सबसे साबुत कामगार
उनके अरमानों की हो रही भ्रूण हत्या रोज व रोज
और वे लड़ते जा रहे जीवटता से
संघर्ष के कुरुक्षेत्र में अपने दम पर
व्यवस्था के विरुद्ध कभी न समाप्त होने वाली लड़ाई
५ दिसंबर २०११
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