अनुभूति में अमरेन्द्र
सुमन
की रचनाएँ—
नई रचनाओं में-
अपने ही लोगों को खिलाफ
एक पागल
बुचुआ माय
छंदमुक्त में-
अकाल मृत्यु
अगली पंक्ति में बैठने के क्रम में
उँगलियों को मुट्ठी में तब्दील करने की
जरुरत
एक ही घर में
धन्यवाद मित्रो
नाना जी का सामान
नुनुवाँ की नानी माँ
फेरीवाला
रोशनदान
व्यवस्था-की-मार-से-थकुचाये-नन्हें-कामगार-हाथों-के-लिये
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अपने ही लोगों के
खिलाफ
आत्मग्लानि, अपराध बोध से ग्रसित
दिख रहे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, खेत-खलिहान
उपस्थिति में ही जिनकी
खो रहा जंगल अपनी पहचान
अपनी संस्कृति, अपने निशान
दिख रहीं उदास
माँ की रसोई की हाँडी
बेटी के बेहतर भविष्य की बापू की कल्पनाएँ
बाहा, सरहुल, करमा मनाती
बहनों के हाथों की मेंहदी।
कुछेक दिनों से दिख रहा
उल्टा-उल्टा सा सबकुछ यहाँ।
बस्ती की यह हालत इन दिनों, ऐसी क्यों ?
जानना चाहता हूँ, तुझसे ही
तुम्हारी बस्ती में पसरे अँधेरे का रहस्य
गूँगी-बहरी घर की दिवारों के
एकाकीपन का वास्तविक सच
अपने अंदर छिपाए जिनके दर्द में
पिघल रहे मोम की तरह दिन-प्रतिदिन तुम,
तुम्हारी बस्ती के लोग।
रहस्यमयी तुम्हारी चुप्पी का राज क्या है
मंगल आहड़ी?
क्या तुम यही सोच रहे कि पिछले दिनों
लबदा ईसीआई मिशन हॉस्टल की
जिन चार नाबालिग लड़कियों के साथ
दुष्कर्म की वारदातें घटित हुई थीं
वे कोई और नहीं तुम्हारी ही
बस्ती की बहन-बेटियाँ थीं।
कि जिन दुष्कर्मियों ने
रात के अँधेरे में घटना को अंजाम तक पहुँचाया
तुम्हारी बस्ती के बाजू में स्थित जामजोड़ी के रहने वाले लोग
थे?
कि बाहरी दखलंदाजी
छल-प्रपंच से दूर
जिन्हें सिखाया करते थे
जंगल, पहाड़, आदिवासियों के हक-हकुक की
रक्षा के लिये बुरे वक्त के नुस्खे
दगाबाजी उन्होनें ही की
तुम्हारी बस्ती की आत्मा से
तुझसे, तुम्हारी बहन-बेटियों से?
अपराधियों की जाति
अपराध के उनके तौर-तरीके
उनका धर्म नहीं देखा जाता मंगल आहड़ी!
नहीं देखा जाता उनमें
अपने-पराये का कोई बोध
काले-गोरे का अन्तर?
तुम्हारी खुद की ही व्यवस्था में चुनौती बने
उन शैतानों के विरुद्ध लड़नी होगी लम्बी लड़ाई
जिन्हें नहीं भाती बाँसुरी की सुरीली तान पर
मुस्कुराती जंगल की हवाएँ, लताएँ।
मांदर की थाप पर थिरकती नदी की मानिंद शांत, निश्चल स्वभाव
लड़कियाँ
पेड़ों पर कुहुक-कुहुक करती कोयल!
२७ अक्तूबर २०१४
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