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अनुभूति में मरेन्द्र सुमन की रचनाएँ

नई रचनाओं में-
अपने ही लोगों को खिलाफ
एक पागल
बुचुआ माय

छंदमुक्त में-
अकाल मृत्यु
अगली पंक्ति में बैठने के क्रम में
उँगलियों को मुट्ठी में तब्दील करने की जरुरत
एक ही घर में
धन्यवाद मित्रो
नाना जी का सामान
नुनुवाँ की नानी माँ
फेरीवाला
रोशनदान

व्यवस्था-की-मार-से-थकुचाये-नन्हें-कामगार-हाथों-के-लिये

 

बुचुआ माय

ढाई कमरों में सिमटे हेल्थ सेंटर के एक कोने में
बिस्तर पर पड़ी
पिछले ढाई-तीन महीने से जीवन व मौत के बीच
लगातार संघर्षरत
नहीं रही इस संसार में अब बुचुआ माय।

किडनी व श्वास की बीमारी से परेशान
पिछली ही रात जिसके मृत होने की पुष्टि
डॉक्टरों ने कर दी थी।

हेंठ चकाई, तीनघरबा, लीलूडीह, रामचन्द्रडीह व
आसपास के कई अन्य गाँवों तक
इस खबर के फैलते ही
माहौल हो गया गमगीन
लोग रह गए हतप्रभ देखकर उसकी काया
जबकि यह उम्र बुचुआ माय के मरने की नहीं थी
काल ने समा लिया अपने आगोश में उसे।

औरत-मर्द, बच्चे, बेताब दिख रहे सभी
बुचुआ माय के अंतिम दर्शन को
बिना किसी भेदभाव के
जो करती रही सेवा पूरी निष्ठा,
श्रद्धा भाव से लोगों की
आपसी भाईचारे का पाठ पढ़ाती रही
अंतिम क्षणों तक
उँच-नीच, जाति-धर्म की
संकीर्णताओं से परे रहकर।

सींचती रही अपने स्तन से समय-असमय उन्हें
नसीब नहीं था जिन्हें जन्म देनेवाली माँ का दूघ
उनका लाड़-प्यार, समर्पण
औलाद जनते ही जो छोड़ जाती खुद संसार
बुचुआ माय के भरोसे।

वह चली जाऐगी छोड़कर इस कदर अपने गाँववालों को
आजु-बाजू स्थित अन्य गाँव-टोलों को
कमजोर स्तन की बदौलत पाल-पोस कर
खड़ा करने वाले टूअर मासूम बच्चों को
माँ...कहकर जो छुप जाया करते उसके आँचल में
किसी अनहोनी की आशंका से पूर्व
विश्वास से परे थी यह बात।

वह चली गई फिर भी किन्तु
बिना किसी आहट के, बिना किसी सूचना के।

भर गया हेल्थ सेंटर का अहाता रफ्ता-रफ्ता
बढ़ती चली गई देखनेवालों की भीड़
अप्रत्याशित रुपों में।

(२)

बुचुआ माय कोई नामचीन महिला नहीं
किसी अमीर घराने की बहु-बेटी नहीं
ठसक वाले किसी व्यक्ति की पत्नी नहीं
किसी की कोई नजदीकी रिश्तेदार नहीं।

उसका अपना कोई नहीं
वह थी अकेली, अलावा एक मात्र विकलांग बुचुआ के
जो था उसका अपना वर्तमान, उसका भविष्य
उसकी दो आँखें, उसके दो हाथ
जिसकी परवाह किये बिना वह करती रही
दूसरों के बच्चों की तेल-मालिश
साफ करती रही मलमूत्र, बिस्तर
अपने जिन्दा रहने की आखिरी सीमा तक।

दलित परिवार से ताल्लुक रखने के बाद भी
साधारण कद-काठी की
स्वाभिमानी डगरिन बुचुआ माय ने
नहीं की माँग किसी से गर्भवतियों के बच्चे जनने में
की गई लगातार कई-कई महीनों तक
निःस्वार्थ भाव सेवा के एवज में
अपेक्षित आशाओं के अनुरुप
धन, वस्त्र, जेवरात की।

जब तक जिन्दा रही
मुस्कुराती रही, एक पहर अनाज पाकर भी।

संस्कार, आचार-विचार की परिभाषा तो
कोई बुचुआ माय से ही सीखे!

असमय उसकी मौत की खबर
ईश्वर की मर्जी रही कुछ लोगों के लिये
कुछ के लिये भविष्य की अपूरणीय क्षति
वर्तमान की एक बड़ी बिडंबना कुछ अन्य के लिये।

लल्लू सुनार की बहु, परदेशी सिंह की बेटी
पुनीता कर्ण की आँखों में छलक आए आँसु
बच्चे जनने की पीड़ा में जो दूर जा रही थीं
अपनी बची उम्र से कोसों दूर
बुचुआ माय ही थी,
मौत के मुँह से लौटा लाई वापस
नयी सुबह की रोशनी नसीब हुई जिन्हें।

अपना-पराया, अमीरी-गरीबी की
सारी सीमाओं से अलग
कई एक गाँववालों के लिये बुचुआ माय
किसी बड़े वरदान से कम नहीं थीं।

आशा भरी निगाहों से बुचुआ टोहता रहा उपस्थित लोगों की जेबें, कफन के कपड़े की कीमत
श्मशान में दाह-संस्कार के लिये डोम राजा का शुल्क
आम की लकड़ी, दान की खटिया।

(३)

उसे क्या पता
सभी जमा लोग नहीं हो सकते
उसकी मृत माता के अपने
जिनके भरोसे वह चाहता रहा करना
माँ का अंतिम संस्कार !

हाथ में जेबें छिपाए वे ही देखे गए
सरकते हुए सबसे पहले लाश पड़ी जगह से
बुचुआ माय की मौत पर जिनकी आँखें थीं
पूरी तरह नम, गीली, परेशान
महसूस कर रहे थे जो लूट गया उनका सबकुछ।

वे करते रहे मात्र अफसोस
बँधाते रहे ढाढ़स
आने वाले दिनों में
अपने दम पर बुचुआ के जीने का।

जीवन में पहली दफा बुचुआ ने देखा
इंसानों का परजीवी संस्कार, बदलता विचार,
उनके भीतर का सूना संसार।

नाउम्मीदी की अर्थी,
समय पर मुकर जाने की मानसिकता वाले
लोगों की लम्बी कतार।

वह सोचता रहा कितनी महान थी
जन्म देनेवाली उसकी माँ!

माँ का संस्कार
माँ का विचार।

२७ अक्तूबर २०१४

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