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मुल्क
वक्त भी कैसी पहेली
शहरे वफ़ा

 

 

मुल्क

मुल्क तूफ़ाने – बला की ज़द में है
दिल सियासतदान की मसनद में है।

अब मदारी का तमाशा छोड़ कर
आज कल वो आदमी संसद में है।

एकता का तो दिलों में है मुक़ाम
वो कलश में है न वो गुम्बद में है।

ज़िन्दगी भर ख़ून से सींचा जिसे
वो शजर मेरा निगाहे – बद में है।

फिर है ख़तरे में वतन की आबरू
फिर बड़ी साज़िश कोई सरहद में है।

एक जुगनू भी नहीं आता नज़र
यह अंधेरा किस बुरे मक़सद में है।

चिलचिलाती धूप में 'शेरी' ख़याल
हट के मज़िल से किसी बरगद में है।

१५ अगस्त २००४

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