ज़रा पाने की चाहत
में
ज़रा पाने की चाहत में, बहुत
कुछ छूट जाता है,
न जाने सब्र का धागा, कहाँ पर टूट जाता है।
किसे हमराह कहते हो, यहाँ तो
अपना साया भी,
कहीं पर साथ चलता है, कहीं पर छूट जाता है।
ग़नीमत है नगर वालों, लुटेरों
से लुटे हो तुम,
हमें तो गाँव में अक्सर, दरोगा लूट जाता है।
अजब शै हैं ये रिश्ते भी, बहुत
मज़बूत लगते हैं,
ज़रा-सी भूल से लेकिन, भरोसा टूट जाता है।
बमुश्किल हम मुहब्बत के दफ़ीने
खोज पाते हैं,
मगर हर बार ये दौलत, सिकंदर लूट जाता है।
१ मार्च २००५ |