अनुभूति में
आलोक श्रीवास्तव की रचनाएँ-
नई ग़ज़लें-
झाँकता है
मंज़िल पे ध्यान
मंज़िलें क्या हैं
याद आता है
सारा बदन
अंजुमन में-
अगर सफ़र में
ठीक हुआ
तुम सोच रहे हो
पिया को जो न मैं देखूँ
बूढ़ा टपरा
मैंने देखा है
ज़रा पाने की चाहत में
झिलमिलाते हुए दिन रात
ये सोचना ग़लत है
हम तो ये बात जान के
हरेक लम्हा
संकलन में-
ममतामयी-अम्मा
पिता की तस्वीर-बाबू
जी
दोहों में-
सात दोहे
दोहों में-
सात दोहे
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झाँकता है
असर बुज़ुर्गों की नेमतों का, हमारे अंदर से झाँकता है,
पुरानी नदियों का मीठा पानी, नए समंदर से झाँकता है।
न जिस्म कोई, न दिल न आँखें, मगर ये जादूगरी तो देखो,
हर एक शै में धड़क रहा है, हर एक मंज़र से झाँकता है।
लबों पे' ख़ामोशियों का पहरा, नज़र परेशां उदास चेहरा,
तुम्हारे दिल का हर एक जज़्बा, तुम्हारे तेवर से झाँकता है।
चहक रहे हैं चमन में पंछी, दरख़्त अँगड़ाई ले रहे हैं,
बदल रहा है दुखों का मौसम, बसंत पतझर से झाँकता है।
गले में माँ ने पहन रखे हैं, महीन धागे में चंद मोती,
हमारी गर्दिश का हर सितारा, उस एक ज़ेवर से झाँकता है।
थके पिता का उदास चेहरा, उभर रहा है यूँ मेरे दिल में,
कि प्यासे बादल का अक्स जैसे, किसी सरोवर से झाँकता है।
१२ अक्तूबर २००९ |