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अनुभूति में आलोक श्रीवास्तव की रचनाएँ-

नई ग़ज़लें-
झाँकता है
मंज़िल पे ध्यान
मंज़िलें क्या हैं
याद आता है
सारा बदन

अंजुमन में-
अगर सफ़र में
ठीक हुआ

तुम सोच रहे हो
पिया को जो न मैं देखूँ
बूढ़ा टपरा
मैंने देखा है
ज़रा पाने की चाहत में
झिलमिलाते हुए दिन रात
ये सोचना ग़लत है
हम तो ये बात जान के
हरेक लम्हा

संकलन में-
ममतामयी-अम्मा
पिता की तस्वीर-बाबू जी

दोहों में-
सात दोहे

  ये सोचना गल़त है

ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं,
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बेख़बर नहीं।

अब तो खुद अपने खून ने भी साफ़ कह दिया-
मैं आपका रहूँगा मगर उम्र भर नहीं।

आ ही गए ख्व़ाब तो फिर जाएँगे कहाँ,
आँखों से आगे इनकी कोई रहगुज़र नहीं।

कितना जीएँ, कहाँ से जीएँ और किस लिए,
ये इख़्तियार हम पे है तक़दीर पर नहीं।

माज़ी की राख उल्टें तो चिंगारियाँ मिलें,
बेशक किसी को चाहो मगर इस क़दर नहीं।

१ मार्च २००५

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