अनुभूति में
आलोक श्रीवास्तव की रचनाएँ-
नई ग़ज़लें-
झाँकता है
मंज़िल पे ध्यान
मंज़िलें क्या हैं
याद आता है
सारा बदन
अंजुमन में-
अगर सफ़र में
ठीक हुआ
तुम सोच रहे हो
पिया को जो न मैं देखूँ
बूढ़ा टपरा
मैंने देखा है
ज़रा पाने की चाहत में
झिलमिलाते हुए दिन रात
ये सोचना ग़लत है
हम तो ये बात जान के
हरेक लम्हा
संकलन में-
ममतामयी-अम्मा
पिता की तस्वीर-बाबू
जी
दोहों में-
सात दोहे
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पिया को जो न मैं
देखूँ सखी पिया को जो मैं
न देखूँ तो कैसे काटूँ अंधेरी रतियाँ,
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहाँ से लाऊँ मैं ऐसी अँखियाँ।
दिलों की बातें दिलों के अंदर,
ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं,
वो सुनना चाहें जुब़ाँ से सब कुछ, मैं करना चाहूँ नज़र से
बतियाँ।
ये इश्क या है, ये इश्क या है,
ये इश्क या है, ये इश्क या है,
सुलगती सांसें, तरसती आँखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियाँ।
उन्हीं की आँखें, उन्हीं का
जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की खुशबू,
किसी भी धुन में रमाऊँ जियरा, किसी दरस में पिरो लूँ अँखियाँ।
मैं कैसे मानूँ बरसते नैनो, कि तुमने देखा है पी को आते,
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटकी कलियाँ।
२४ मई २००५ |