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अनुभूति में आलोक श्रीवास्तव की रचनाएँ-

नई ग़ज़लें-
झाँकता है
मंज़िल पे ध्यान
मंज़िलें क्या हैं
याद आता है
सारा बदन

अंजुमन में-
अगर सफ़र में
ठीक हुआ

तुम सोच रहे हो
पिया को जो न मैं देखूँ
बूढ़ा टपरा
मैंने देखा है
ज़रा पाने की चाहत में
झिलमिलाते हुए दिन रात
ये सोचना ग़लत है
हम तो ये बात जान के
हरेक लम्हा

संकलन में-
ममतामयी-अम्मा
पिता की तस्वीर-बाबू जी

दोहों में-
सात दोहे

  हरेक लम्हा

हरेक लमहा उजालों के दिल में गड़ता हुआ,
मैं इक चराग हूँ, सूरज की सिम्त बढ़ता हुआ।

मेरी जड़ों में मठा डालने की भूल न कर,
कि सख़्त और भी होता है पेड़ झड़ता हुआ।

है सोच-सोच का अंतर कि फिर चुका हूँ मैं,
वो मेरे सामने आया है फिर अकड़ता हुआ।

मुझे ये डर है रसातल न उसको ले जाए,
दिमाग उसका कई आसमान चढ़ता हुआ।

हमारे सामने रिश्तों के ख़्वाब बिखरे हैं,
बहुत करीब से देखा है घर उजड़ता हुआ।

१ मार्च २००५

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