हरेक लम्हा
हरेक लमहा उजालों के दिल में
गड़ता हुआ,
मैं इक चराग हूँ, सूरज की सिम्त बढ़ता हुआ।
मेरी जड़ों में मठा डालने की
भूल न कर,
कि सख़्त और भी होता है पेड़ झड़ता हुआ।
है सोच-सोच का अंतर कि फिर चुका
हूँ मैं,
वो मेरे सामने आया है फिर अकड़ता हुआ।
मुझे ये डर है रसातल न उसको ले
जाए,
दिमाग उसका कई आसमान चढ़ता हुआ।
हमारे सामने रिश्तों के ख़्वाब
बिखरे हैं,
बहुत करीब से देखा है घर उजड़ता हुआ।
१ मार्च २००५ |