सात दोहे
आँखों में लग जाएँ तो, नाहक निकले खून,
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून
भौचक्की है आत्मा, सांसें भी हैरान,
हुक्म दिया है जिस्म ने, ख़ाली करो मकान।
तुझमें मेरा मन हुआ, कुछ ऐसा तल्लीन,
जैसे गाए डूब के, मीरा को परवीन।
जोधपुरी साफ़ा, छड़ी, जीने का अंदाज़,
घर-भर की पहचान थे, बाबूजी के नाज़।
कल महफ़िल में रात भर, झूमा खूब गिटार,
सौतेला-सा एक तरफ़, रक्खा रहा सितार।
फूलों-सा तन ज़िंदगी, धड़कन जिसे फांस,
दो तोले का जिस्म हैं, सौ-सौ टन की सांस।
चंदा कल आया नहीं, लेकर जब बारात,
हीरा खा कर सो गई, एक दुखियारी रात।
१६ जनवरी २००५ |