अनुभूति में
आलोक श्रीवास्तव की रचनाएँ-
नई ग़ज़लें-
झाँकता है
मंज़िल पे ध्यान
मंज़िलें क्या हैं
याद आता है
सारा बदन
अंजुमन में-
अगर सफ़र में
ठीक हुआ
तुम सोच रहे हो
पिया को जो न मैं देखूँ
बूढ़ा टपरा
मैंने देखा है
ज़रा पाने की चाहत में
झिलमिलाते हुए दिन रात
ये सोचना ग़लत है
हम तो ये बात जान के
हरेक लम्हा
संकलन में-
ममतामयी-अम्मा
पिता की तस्वीर-बाबू
जी
दोहों में-
सात दोहे
दोहों में-
सात दोहे
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मंज़िल पे ध्यान
मंज़िल पे ध्यान हमने ज़रा भी अगर दिया,
आकाश ने डगर को उजालों से भर दिया।
रुकने की भूल हार का कारण न बन सकी,
चलने की धुन ने राह को आसान कर दिया।
पीपल की छाँव बुझ गई, तालाब सड़ गए,
किसने ये मेरे गाँव पे एहसान कर दिया।
घर, खेत, गाय, बैल, रक़म अब कहाँ रहे,
जो कुछ था सब निकाल के फसलों में भर दिया।
मंडी ने लूट लीं जवाँ फसलें किसान की,
क़र्ज़े ने ख़ुदकुशी की तरफ़ ध्यान कर दिया।
१२ अक्तूबर २००९ |