अनुभूति में
आलोक श्रीवास्तव की रचनाएँ-
नई ग़ज़लें-
झाँकता है
मंज़िल पे ध्यान
मंज़िलें क्या हैं
याद आता है
सारा बदन
अंजुमन में-
अगर सफ़र में
ठीक हुआ
तुम सोच रहे हो
पिया को जो न मैं देखूँ
बूढ़ा टपरा
मैंने देखा है
ज़रा पाने की चाहत में
झिलमिलाते हुए दिन रात
ये सोचना ग़लत है
हम तो ये बात जान के
हरेक लम्हा
संकलन में-
ममतामयी-अम्मा
पिता की तस्वीर-बाबू
जी
दोहों में-
सात दोहे
दोहों में-
सात दोहे
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याद आता है
वही आँगन, वही खिड़की, वही दर याद आता है,
मैं जब भी तन्हा होता हूँ, मुझे घर याद आता है।
मेरे सीने की हिचकी भी, मुझे खुलकर बताती है,
तेरे अपनों को गाँव में, तू अक्सर याद आता है।
जो अपने पास हो उसकी कोई क़ीमत नहीं होती,
हमारे भाई को ही लो, बिछड़ कर याद आता है।
सफलता के सफ़र में तो कहाँ फ़ुर्सत के' कुछ सोचें,
मगर जब चोट लगती है, मुक़द्दर याद आता है।
मई और जून की गर्मी, बदन से जब टपकती है,
नवम्बर याद आता है, दिसम्बर याद आता है।
१२ अक्तूबर २००९ |